- दान
- खंति = शांति, सहनशिलता, क्षमाशिलता
- मैत्री
- उपेक्षा = समता
1) दान : अगर दान लेने वाले कोई न हो, कोई मनुष्य, कोई संस्था, कोई पशु-पक्षी या अन्य कोई भी न हो तो हमारी दान पारमिता पूर्ण नहीं हो सकती ।
जो भी कोई हमसे दान स्विकार करता हैं, तो वह हमारी दान पारमिता पुष्ट करने में हमें मदद कर रहा हैं ।
2) खंति = क्षांति, शांति, सहनशिलता, क्षमाशिलता : अगर कोई हमें निन्दित, पीड़ित या परेशान करने वाला न हो तो, हमारी यह पारमिता पूर्ण नहीं हो सकती ।
जब तक कोई हमें निन्दित, पीड़ित या परेशान न करें, तब तक हम अपने आपको जाँच भी नहीं सकते कि, हमारी यह पारमिता पुष्ट हो रही हैं या नहीं ।
यह व्यक्ति भी हमारी पारमिता पुष्ट करने में हमें मदद कर रहा हैं ।
3) मैत्री : जब तक कोई व्यक्ति हमारे साथ अनुचित व्यवहार न करें, तब तक हम यह नहीं जाँच सकते कि, हमारी यह पारमिता पुष्ट हो रही हैं या नहीं ।
इसलिए जब जब कोई व्यक्ति हमारे साथ अनुचित व्यवहार करें तो, पहले तो उस पर हमें दया आनी चाहिए कि, यह व्यक्ति अज्ञानता के कारण अकुशल कर्म कर, अपने स्वयं की बहुत बड़ी हान कर ले रहा हैं । और प्रसन्नता भी होनी चाहिए कि, यह व्यक्ति मुझे अपनी मैत्री, खंति और समता जाँचने का और पुष्ट करने का अवसर दिया हैं ।
तथागत भगवान सम्यक संबुद्ध कहते हैं: कोई व्यक्ति तेज धार वाले शस्त्र से हमारे शरीर को काटने लगे, तो भी उस व्यक्ति के लिए हमारे चित्त में रंच मात्र भी द्वेष न जगें, बल्कि मैत्री ही जगते रहें । इसका मतलब यह भी नहीं कि, कोई हमारे साथ अनुचित व्यवहार करें तो भी हम चुपचाप सहते रहें । ऐसा बिलकुल भी नहीं । जब जब आवश्यकता हो, शरीर से, वाणी से कठोर कर्म अवश्य करें, पर मन में द्वेष, दुर्भावना, कटूता जरा भी न जगें ।
4) उपेक्षा = समता
जब जब जीवन में अनचाही घटना घटती हैं, तो हमें अपनी यह पारमिता जाँचने का और इसे पुष्ट करने का अवसर मिलता हैं ।
इसलिए कभी भी जीवन में अनचाही घटना घटती हैं, तो जरा भी व्याकुल, बेचैन या विचलित नहीं होना है, बल्कि मन प्रसन्नता से भर उठे कि, “मुझे यह पारमिता जाँचने का और इसे पुष्ट करने का अवसर मिला हैं ।”
सुख-दुःख, मान-अपमान, यश-अपयश, लाभ-हानी, निंदा-प्रशंसा, जय-पराजय जिसे समान हो, किसी भी कारण से जिसका चित्त कभी विचलित नहीं होता हो, वहि समतावान साधक है