ध्यान की साधना में यदि क्रमशः अमूर्च्छा, आत्मज्ञान और सजगता विकसित होती जावे, तो मानना चाहिए कि हम चित्त के सम्मोहन-घेरे से बाहर हो रहे हैं।
और, यदि इसके विपरीत मूर्च्छा और प्रमाद बढ़ता हो, तो निश्चित मानना चाहिए कि चित्त की निद्रा और गहरी हो रही है।
लेकिन, स्वयं प्रयोग किए बिना कुछ भी अनुभव नहीं हो सकता है।
विचार ही न करते रहें। विचार को छोड़ें और स्वयं में उतरें।
विचार तो किनारा ही है–जीवन-शक्ति की धारा तो निर्विकार ध्यान में ही है।
कबीर ने कहा है:
‘जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
मैं बौरी खोजन गई, रही किनारे बैठ।।’