एक बार तथागत गौतम से एक ब्राह्मण ने पूछा
ब्राह्मण:– “आप सब लोगों को ये बताते हैं कि आत्मा नहीं है, स्वर्ग नहीं है, पुनर्जन्म नहीं है। क्या यह सत्य है?”
तथागत:- “आपको यह किसने बताया कि मैंने ऐसा कहा?”
ब्राह्मण:- “नहीं ऐसा किसी ने नहीं बताया।”
तथागत:- “फिर मैंने ऐसे कहा यह बताने वाले व्यक्ति को क्या जानते हो?
ब्राह्मण:- “नहीं।”
तथागत:-“मुझे ऐसा कहते हुए आपने कभी सुना है?”
ब्राह्मण:- “नहीं तथागत, पर लोगों की चर्चा सुनकर ऐसा लगा। अगर ऐसा नहीं है तो आप क्या कहते हैं?”
तथागत:- “मैं कहता हूँ कि मनुष्य को वास्तविक सत्य स्वीकारना चाहिए।”
ब्राह्मण:- “मैं समझा नहीं तथागत, कृपया सरलता से बताएँ।”
तथागत:- “मनुष्य के पास पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं जिनकी मदद से वह सत्य को समझ सकता है।”
- आँखें- मनुष्य आँखों से देखता है।
- कान- मनुष्य कानों से सुनता है।
- नाक- मनुष्य नाक से गंध का बोध करता है।
- जिह्वा- मनुष्य जिह्वा से स्वाद लेता है।
- त्वचा- मनुष्य त्वचा से स्पर्श महसूस करता है।”
“इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों में से दो या तिन ज्ञानेन्द्रियों की मदद से मनुष्य सत्य जान सकता है।”
ब्राह्मण:- “कैसे तथागत?”
तथागत:- “आँखों से पानी देख सकते हैं, पर वह ठण्डा है या गर्म यह जानने के लिए त्वचा की मदद लेनी पड़ती है, वह मीठा है या नमकीन ये जानने के लिए जिह्वा की मदद लेनी पड़ती है।”
ब्राह्मण:- “फिर भगवान है या नहीं इस सत्य को कैसे जानेंगे तथागत?”
तथागत:- “आप वायु को देख सकते है?”
ब्राह्मण:- “नहीं तथागत।”
तथागत:- “इसका मतलब वायु नहीं है ऐसा होता है क्या?”
ब्राह्मण:- “नहीं तथागत।”
तथागत:- “वायु दिखती नहीं फिर भी हम उसका अस्तित्व नकार नहीं सकते, क्योंकि वायु को ही हम साँस के द्वारा अंदर लेते हैं और बाहर निकलते हैं। जब वायु का झोंका आता है तब पेड़-पत्ते हिलते हैं, हम यह देखते हैं और महसूस करते हैं।अब आप बताओ भगवान हमें पाँच ज्ञानेन्द्रियों से महसूस होता है?
ब्राह्मण:- “नहीं तथागत।”
तथागत:- “आपके माता-पिता ने देखा है, ऐसे उन्होंने आपको बताया है?”
ब्राह्मण:- “नहीं तथागत।”
तथागत:- “फिर परिवार के किसी पुर्वज ने देखा है, ऐसा आपने सुना है?”
ब्राह्मण:- “नहीं तथागत।”
तथागत:- “मैं यही कहता हूँ कि जिसे आजतक किसी ने देखा नहीं, जिसे हमारी ज्ञानेन्द्रियों से जान नहीं सकते, वह सत्य नहीं है इसलिए उसके बारे में सोचना व्यर्थ है।”
ब्राह्मण:- “वह ठीक है तथागत, पर हम ज़िन्दा हैं इसका मतलब हमारे अंदर आत्मा है, ये आप मानते हैं या नहीं?”
तथागत:- “मुझे बताइये, मनुष्य मरता है, मतलब क्या होता है?”
ब्राह्मण:- “आत्मा शारीर के बाहर निकल जाती है, तब मनुष्य मर जाता है।”
तथागत:- “मतलब आत्मा नहीं मरती है?”
ब्राह्मण:- “नहीं तथागत, आत्मा अमर है।”
तथागत:- “आप कहते है आत्मा कभी नहीं मरती, आत्मा अमर है। तो ये बताइए आत्मा शारीर छोड़ती है या शरीर आत्मा को?”
ब्राह्मण:- “आत्मा शरीर को छोड़ती है तथागत।”
तथागत:- “आत्मा शरीर क्यों छोड़ती है?”
ब्राह्मण:- “जीवन ख़त्म होने के बाद छोड़ती है।”
तथागत:- “अगर ऐसा है तो मनुष्य कभी मरना ही नहीं चाहिए। दुर्घटना, बीमारी यावघाव लगने के बाद भी बिना उपचार के जीना चाहिए। बिना आत्मा के मर्ज़ी के मनुष्य नहीं मर सकता।”
ब्राह्मण:- “आप सही कह रहे हैं तथागत। पर मनुष्य में प्राण है, उसे आप क्या कहेंगे?”
तथागत:- “आप दीपक जलाते हैं?”
ब्राह्मण:- “हाँ तथागत।”
तथागत:- “दीपक यानि एक छोटा दीया, उसमें तेल, तेल में बाती और उसे जलाने के लिए अग्नि चाहिए, बराबर?”
ब्राह्मण:- “हाँ तथागत।”
तथागत:- “फिर मुझे बताए बाती कब बुझती है?”
ब्राह्मण:- “तेल ख़त्म होने के बाद दीपक बुझ जाता है तथागत।”
तथागत:- “और?”
ब्राह्मण:- “तेल है पर बाती ख़त्म हो जाए तब दीपक बुझ जाता है तथागत।”
तथागत:- “इसके साथ ही तेज वायु के प्रवाह से, बाती पर पानी डालने से या दिया टूट जाने पर भी दीपक बुझ सकता है।अब मनुष्य शारीर को भी एक दीपक समझ लेते हैं, और प्राण मतलब अग्नि यानि ऊर्जा। सजीवों की देह चार तत्वों से बनी है।
- पृथ्वी- घनरूप पदार्थ यानि मिट्टी
- आप- द्रवरूप पदार्थ यानि पानी, स्निग्ध और तेल
- वायु- अनेक प्रकार की हवा का मिश्रण
- तेज- ऊर्जा, ताप, उष्णता
इसमें से एक पदार्थ अलग कर देंगे तो ऊर्जा और ताप का निर्माण होना रुक जायेगा और मनुष्य निष्क्रिय हो जायेगा। इसे ही मनुष्य की मृत्यु कहा जाता है इसलिये आत्मा भी भगवान की तरह अस्तित्वहीन है।”
“यह सब चर्चा व्यर्थ है। इससे धम्म का समय व्यर्थ हो जाता है।”
ब्राह्मण:- “जी तथागत! फिर धम्म क्या है और इसका उद्देश्य क्या है?”
तथागत:- “धम्म का मतलब अँधेरे से प्रकाश की और ले जाने वाला मार्ग है। धम्म का उद्देश्य मनुष्य के जन्म के बाद मृत्यु तक कैसे जीवन जीना है इसका मार्गदर्शन करना है।
जीवन के सूत्रों को समझना और उनके उपयोग से जीवन से दुःख दूर करने का मार्ग ही धम्म है। प्रकृति के नियमों की समझना और उसके हिसाब से जीवन के दुखों के समाधान का मार्ग है धम्म है, प्रकृति की पूजा धम्म नहीं है।
धम्म जिज्ञासाओं को काल्पनिक धर्म-कहानियों द्वारा मारना नहीं, धम्म को जानने और खोजने का नाम ही विज्ञान है।
धम्म का आधार अनुभव है, आस्था या अंधभक्ति नहीं। धम्म जानने के बाद मानने में है आस्था में नहीं।
धम्म मानव को, मानव और जीवों का सहारा बनाने में है, धम्म अपना सहारा खुद बनने में है, न कि किसी देवकृपा के इंतज़ार में बैठे रहने में।
दुःख दो प्रकार के होते हैं – एक प्राकृतिक, दूसरा मानव निर्मित। प्राकृतिक दुःख का इलाज तो आपके तथाकथित ईश्वर के पास भी नहीं है। वह भी उसे रोकने में असमर्थ है।”