तृष्णा एक जहर है। हमारे जीवन-पात्र में भरा हुआ मीठा मादक जहर । मीठा है इसलिए स्वाद के मारे हम इसे निरंतर पीते रहते हैं। मादक है इसलिए इसे पीकर हम मदहोश हुए रहते है और यह भी नहीं समझ पाते कि हम जहर पी रहे हैं। जहर है इसलिए इसे पीकर हम प्रतिक्षण मृत्यु के चंगुल में ही उलझे रहते हैं। नए-नए जन्म लेते हैं, परंतु हर जन्म मृत्यु के पोषण के लिए ही होता हैं। हर जीवन की दौड़ मृत्यु के लिए ही होती है। हर जन्म की चरम परिणति मृत्यु में ही होती है।
तृष्णा हमारे जीवन-नासूर की पीप है जो सतत प्रवहमान है। प्रतिक्षण इस फोड़े में से गंदे स्राव की तरह रिस-रिस कर बहती ही रहती है। इस आस्रव के कारण जीवन-वृक्ष सदा हरा रहता है। कभी सूखने नहीं पाता। हम इसकी पीड़ा से मुक्त नहीं हो पाते।
तृष्णा हमारे जीवन-कोढ़ की खाज है। इसे खुजला खुजलाकर हम इस कोढ़ को बढ़ाते रहते है। खुजलाने का मजा कोढ़ के कष्ट पर हावी हुआ रहता है।
तृष्णा जीवन का कफन है। मृत्यु की चादर है। इसे हम सुंदर दुशाले की तरह ओढ़े हुए इसके सौन्दर्य पर मुग्ध रहते हैं।
तृष्णा एक प्यास है जो कभी तृप्त नहीं हो सकती । सारे विश्व का एन्द्रिय-रस भी इस तृष्णा को बुझा नहीं सकता।
तृष्णा एक भूख है जो कभी मिटती नहीं। दुनियाभर का वैभव-भोग भी इस भूख को शांत नहीं कर सकता।
तृष्णा क्षितिज पकड़ने की ऐसी दौड़ है, जो कभी पूरी हो नहीं सकती |
तृष्णा एक ऐसा मृग-जाल है, जिसे भठी-भांति न समझने के कारण इसमें से निकलने का प्रयत्न हमें अधिक उलझाता ही रहता है।
तृष्णा रबड़ की गेंद है। इसे जितने जोर से नीचे की ओर फेंकते हैं, यह उतनी ही तेजी से ऊपर की ओर उछल कर आती है। इसका जितना दमन करते है, यह उतनी ही विस्फोटक बनती जाती है।
तृष्णा को समझो । तृष्णा की गुलामी को समझो। यह जीवन की नैसर्गिक भूख से अलग है। दोनों का भेद जान लेना कल्याणकारी है।
भूख लगे तो शरीर पोषण के लिए आवश्यक आहार ग्रहण करना नैसर्गिक है। परंतु पेट भरा हो तो भी जीभ के स्वाद के लिए खट्टे, मीठे, तीखे, चरपरे, रसभरे व्यंजन खाते रहना तृष्णा की गुलामी है। हिंसक पशु अपनी भूख मिटाने के लिए शिकार करता है। परंतु पेट भर जाने पर किसी जीव को मारने की बात सोचता भी नहीं । भरे पेट कुछ और खाने की बात सोचता भी नहीं । यह नैसर्गिक है, प्राकृतिक है। परंतु कामना के गुलाम मनुष्य का पेट भरा हो तो भी जीभ के स्वाद के लिए नए-नए व्यंजन खाते रहने से वह नहीं अघाता। बिना भूख के भी समय-असमय कुछ न कुछ चरते रहना तृष्णा की गुलामी है।
प्यास लगे तो स्वच्छ, शीतल जल ग्रहण करना नैसर्गिक है। परंतु स्वाद के मारे बिना प्यास के ही भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वादिष्ट पेय पीते रहना तृष्णा की गुलामी है।
सर्दी-गर्मी और वर्षा से, कीट-पतंगों और मक्खी-मच्छरों से शरीर को बचाने के लिए तथा आवश्यक वस्त्र धारण करना स्वाभाविक है। परंतु स्पर्धा के वशीभूत होकर मात्र अहं-पोषण के लिए, अपने कबाट को नित्य नए फैशन वाले चमकीले-भड़कीले वस्त्र आभूषणों से भरे रखना और ऐश्वर्य-प्रदर्शन की होड़ में उनका इस्तेमाल करना तृष्णा की गुलामी है।
धूप तथा कंकड़-काटों से बचने के लिए पांव में जूते पहनना स्वाभाविक आवश्यकता है। परंतु एक जोड़ी जूते होते हुए भी विभिन्न डिजाइनों के जूतों चप्पलों का ढेर जमा रखना और महज वैभव-प्रदर्शन के लिए उन्हें पहनना, तृष्णा की गुलामी है।
जनसेवा में लगना नैसर्गिक गुण है। परंतु जनसेवा के नाम पर किसी सभा-सोसाइटी या सत्ता के पद पर आसीन होने के लिए व्याकुल रहना और पद प्राप्त हो जाय तो उससे चिपके रहने के लिए व्यग्र-व्यथित रहना तृष्णा की गुलामी है।
विवाह-शादी के अवसर पर नवदंपति के लिए बड़े-बुजुर्गो, बंधु-बांधवों, मित्र-स्नेहियों की मंगल-कामना अपेक्षित है। परंतु ऐसे अवसर पर वैभव-प्रदर्शन की होड़, तृष्णा की गुलामी है।
इसी मापदण्ड से अपने जीवन की नैसर्गिक आवश्यकता पूर्ति को तृष्णा की गुलामी से अलग करके देखते-समझते रहो। दोनों एक नहीं हैं, जुदा-जुदा हैं।
तृष्णा की गुलामी को नैसर्गिक आवश्यकताओं का झूठा जामा पहनाना अपने आप को धोखा देना है। रूप, शब्द, रस, गंध, और मनोविकल्प रूपी ऐन्द्रिय विषयों के उपभोग के लिए पागलों की तरह दौड़ना नैसर्गिक आवश्यकता की पूर्ति कदापि नही हैं।
प्रत्येक तृष्णा के उत्पन्न होने पर मन और तन पर एक विशिष्ट प्रकार का अत्यंत सूक्ष्म स्पंदन होने लगता है, जिसकी संवेदना चेतन मन को भले न हो, परंतु अचेतन मन को होती रहती है। जब तक अभीष्ट की प्राप्ति न हो जाय तब तक यह स्पंदन-संवेदन चलता ही रहता है। जब-जब अभीष्ट के प्रति आतुरता-अधीरता बढ़ती है, तब-तब यह स्पंदन भी अधिक तीव्र हो उठता है। तृष्णा के साथ-साथ जन्म लेने और जीवित रहने वाला यह स्पंदन अप्रिय होता है, क्योंकि स्नायु-तंतुओं पर तनाव पैदा करता है, गांठे बांधता है। परंतु इस तनाव और इन ग्रंथियों के बावजूद इस अप्रिय संवेदना में एक प्रकार की सम्मोहन शक्ति होती है जिससे कि अचेतन मन धीरे-धीरे इसमें डूबे रहने का आदी हो जाता है। यह एक अटूट व्यसन की तरह मन से चिपक जाता है। कभी-कभी यह तनाव बहुत ही तीव्र हो उठता है तो हम अपना मानसिक संतुलन खो बैठते है और विक्षिप्त हो जाते हैं। परंतु ऐसा न हो तो भी निरन्तर बने रहने वाले इस तनाव का बुरा असर हमें बेचैन तो बनाए ही रखता है। तृष्णा का यह जहर हमें मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाते रहता है। परंतु फिर भी मीठा होता है, मादक होता है, इसलिए तनाव और कसाव से परिपूर्ण होते हुए भी कुटेव की तरह हमारा पीछा नहीं छोड़ता ।
जब कभी किसी कामना की पूर्ति हो जाती है तो यह विशेष प्रकार का स्पंदन-संवेदन थोड़ी देर के लिए रुक जाता है। उस समय हमारे अंतर्मन पर एक अन्य प्रकार के स्फुरण-सिहरन की संवेदना होने लगती है, जो कि हमें सुखद लगती है, प्रिय लगती है, रोचक लगती है। परंतु यह दीर्घजीवी नहीं होती । उत्पन्न होने के थोड़े समय पश्चात ही यह बासी पड़ने लगती है। इसका आकर्षण मंद पड़ने लगता है। इसके द्वारा प्रतीत होने वाले सुख-संतोष विलीन होने लगते है। और धीरे-धीरे इस स्फुरणा का संवेदन पूर्णतया रुक जाता है और तब कामना-तृष्णा वाला पूर्ववर्ती स्पंदन-संवेदन पुनः जाग पड़ता है। क्योंकि यह संवेदन तो एक व्यसन की तरह पीछे लग ही चुका होता है, इसे निरन्तर चालू रखने के लिए अन्तर्मन अपने लिए कोई न कोई नया अभीष्ट खोज लेता है। नया आलंबन प्राप्त कर ढेता है। और इस प्रकार यह फोड़ा रिसता ही रहता है, चूता ही रहता है। यह आग सुलगती ही रहती है, धधकती ही रहती है। किसी न किसी रूप में हम इस नासूर के प्रति नित्य नया भाव पैदा करते ही रहते है। इस आग के लिए नित्य नया जलावन पैदा करते ही रहते है। कभी रूप का, कभी रस का, कभी गंध का, कभी शब्द का, कभी स्प्रष्टव्य का कभी मनोविकल्प का । यही तृष्णा के प्रति आसक्ति है। तृष्णा के सहजात उस सूक्ष्म स्पंदन के प्रति आसक्ति है जो कि हमारा पीछा नहीं छोड़ती।
इस प्रकार कामना और तृष्णा के घोड़े सरपट दौड़ते ही रहते हैं। किसी एक अभीष्ट की सिद्धि पर जो अल्पकालिक सुखद स्फुरणा हुई थी, उसकी याद में इन घोड़ों की गति और तेज होती ही रहती है।
कामना-पूर्ति में जहां कोई अड़चन पैदा होती है, वहीं द्वेष-शोक जाग उठते है । अभीष्ट सिद्धि नहीं होगी, इस आशंका की पीड़ा जाग उठती है। अभीष्ठ सिद्धि हो जाने पर वह कहीं छूट तो नहीं जायगी, इस भय की चिंता जाग उठती है। दुःख, शोक, आशंका, भय, ये सारे के सारे विकार तृष्णा की ही उपज हैं। इन दर्दनाक मनोविकारों से मुक्ति पाने के लिए तृष्णा-कामना से विमुक्त होना अनिवार्य है, अपरिहार्य है?
भगवान ने कितना ठीक कहाः-
तण्हाय जायती सोको, तण्हाय जायती भयं।
तण्हाय विप्पमुत्तस्स, नत्थि सोको कुतो भयं?
(धम्मपद गाथा २१९६)
तृष्णा से ही शोक उत्पन्न होता है। तृष्णा से ही भय उत्पन्न होता है। तृष्णा से मुक्त हो जाय तो शोक ही न रहे, फिर भय कहां रहे?
और तृष्णा से विमुक्त होने का सहज, सरल तरीका है – विपश्यना भावना । अपने चित्त में समायी हुई तृष्णा को, कामना को न दबाएं, न उपेक्षित करें, बल्कि साक्षीभाव से देखें। कामना-तृप्ति पर प्राप्त हुए क्षणिक सुख से पागल न हो जाय, बल्कि उसे साक्षीभाव से देखें। अतृप्ति के कारण भविष्य के प्रति जो आशंका और भय उत्पन्न होते हैं, उनसे आकुल-व्याकुल और भयभीत न हो जायँ, बल्कि उन्हे साक्षीभाव से देखें। इसी प्रकार इन मनोविकारों से उत्पन्न होने वाळे स्पंदन, सिहरन, थिरकन, फुरकन, स्फुरण, कंपन, धूजन, जलन, उत्पीड़न आदि आदि विभिन्न संवेदनाओं से प्रभावित हुए बिना, इन्हें साक्षीभाव से देखें। इन्हें अचेतन से चेतन मन तक लाकर साक्षीभाव से देखते ही इनका रेचन हो जाता है, उन्मूलन हो जाता है| इनकी जकड़ ढीली पड़ जाती है। इनके क्षण-क्षण परिवर्तित अनित्य स्वभाव को प्रज्ञा-दृष्टि द्वारा देख लेना ही साक्षीभाव से देखना है; यथाभूत देखना है। यही विपश्यना भावना है, विदर्शना भावना है। यही स्थितप्रज्ञता और अनासक्ति का सहज सरल क्रियात्मक अभ्यास है। तृष्णा की गुलामी से नितांत विमुक्ति पाने का यही कल्याणपथ है, यही मंगल-मार्ग है।
(वर्ष १ बृद्धवर्ष २५९५ माघ पूर्णिमा दि. ३०-०१-७२ अंक ८)