श्रीमद् भागवतगीता एक जीवन-ग्रंथ हैं । यह मानव जीवन का एक अनुपम, उत्कृष्ट एवं आदर्श मार्गदर्शक हैं । इसमें जीवन का सम्पूर्ण दर्शन हैं, जीवन के प्रश्नों के उत्तर हैं, जीवन जगत की समस्याओं के समाधान हैं और सफल, सार्थक, समृद्ध एव शान्तिपूर्ण जीवन जीने के व्यावहारिक सूत्र हैं ।
मनुष्य जीवनभर जीविका के प्रपंचों मे ही उलझा ही रहता हैं और उसी को वास्तविक जीवन समझ लेता हैं। जीवन के मुल उद्देश्य, परम लक्ष्य, स्वयं के बारे में ज्ञान प्राप्त करने ( आत्मज्ञान ) की ओर वह ध्यान ही नहीं दे पाता हैं । हम सभी ने भागवतगीता को कई बार पढ़ा हैं, सुना हैं और विस्तार से समझा भी हैं । सार के रूप में राजा परीक्षित् ने श्री शुकदेवजी से जीवन के दो अहम प्रश्न किये थे – 1 ) हम सब जीव जो एक ना एक दिन मरने वाले हैं, उनका क्या कर्तव्य हैं ? एवं 2 ) हम सब जीवों को सदा-सर्वदा कैसा जीवन जीना चाहिये ? ये दोनों ही जीवन के मौलिक प्रश्न हैं और इन्हीं के उत्तर में जीवन का रहस्य, जीवन का लक्ष्य समाहित हैं । श्रीमद् भागवत ने मनुष्य को उसके निज स्वरूप से परिचित कराया हैं । मानवजीवन की दिव्यता एवं महत्ता को रेखांकित किया है और एक उच्च कोटिका जीवनदर्शन प्रस्तुत कर मानव के उत्थान हेतु आव्हान किया हैं ।
श्रीमद् भगवतगीता का उद्देश्य :
इसका उद्देश्य क्या हैं ? क्यों लिखी गई ? क्यों कहा गया हैं इसे भगवान का उपदेश ? ये सभी प्रश्न स्वाभाविक हैं । मानव शांति चाहता हैं, सुख चाहता हैं । धन वैभव से सुखी होने पर भी मन से और तन से आक्रान्त हैं । भागवतगीता बताती है कि दु:ख क्या हैं ? सारे संस्कार अनित्य हैं, जो जन्म लेता हैं, वह नष्ट होता हैं, यही प्रकृति का नियम हैं, परन्तु इसे अज्ञान से मान लेना ही दु:ख हैं अर्थात वस्तुओं कि अनित्यता का अज्ञान ही दु:ख हैं । दु:ख का कारण क्या हैं ? – भागवतगीता कहती हैं कि जो अनित्य हैं उसमें तृष्णा और तृष्णा की आसक्ति ही दु:ख का कारण हैं ।
श्रीमद् भगवतगीता, महाभारत, योगवासिष्ठ, श्रीमद् भागवत एवं वाल्मीकि रामायण ये सभी प्राचीन भारतीय आध्यात्म साहित्य के प्रेरक ग्रंथ हैं । इनकी मान्यता एक दूसरे से कम नहीं हैं । सबकी शिक्षा भी एक है, केवल कहने का तरीक़ा अलग हैं । भिन्न-भिन्न कथाओं के माध्यम का सहारा प्रत्येक ग्रंथ में लिया गया हैं । इसी श्रेणी में एक ग्रंथ और आता हैं – “त्रिपिटक” (बुद्धवाणी) । इसकी शिक्षा भी उपरोक्त ग्रंथों से मिलती हैं । सामग्री भी समान हैं । केवल समझाने का तरीक़ा उस समय की बोल-चाल की भाषा में हैं । सब में एक ही तथ्य दर्शाया है कि संसार में दुःख है । मानवमात्र दुःख से पीड़ित है ! दुःख जीवन कि कठोर सच्चाई है । जन्म के साथ ही दुःख जुड़ा है । दुःख का कारण भी है तृष्णा अर्थात वस्तुओ को प्राप्त करने कि आसक्ति । मनचाही मिलने पर राग उत्पन्न होता हैं और अनचाही होने पर द्वेष । इन्हीं राग – द्वेष रुपी विकारों को दूर किया जाये तो मानव दुःख से मुक्त हो सकता हैं यदि हम वस्तुओं की परिवर्तनशीलता व अनित्यता के बोध को समझ लें । इस बोध के साथ ही आसक्ति से मुक्ति और मन में समता कि स्थिति बनती हैं । ऐसा मन अनंत मैत्री, अनंत करुणा, अनंत मुदिता, एव अनंत उपेक्षा से भर जाता है। इसी स्थिति को विकार विहीन परमपद, परमशान्ति, निर्वाण कि शांति, ब्राम्ही, स्थिति एवं ब्रम्हविहार आदि से सम्बोधित किया गया हैं ।
प्रत्येक जाती व संप्रदाय के धर्मग्रन्थ का सार भी यही लक्ष्य प्राप्त करना है । सिर्फ करने व बताने के अपने -अपने तरीके है । किन्तु यह सारे कथन सिद्धांत रूप में कहे गए है । यह स्थिति किस क्रियात्मक विधि द्वारा प्राप्त हो, यह किसी ने नहीं बताया । वह विधि केवल भगवान बुद्ध ने 2500 वर्षों पूर्व सिखाई, जो आज ‘विपश्यना’ नाम से जानी जाती है । ‘विपश्यना’ ध्यान साधना विधि अपने विकारो से मुक्त होने अर्थात निर्विकार होने की क्रियात्मक विधि है ।
बुद्ध ने कहा आनापान (आन+अपान) अर्थात साँस का अंदर आना व बाहर जाना जीवन के साथ जुडी एक सच्चाई है । यह विपश्यना साधना का प्रथम चरण है । साँस का मन और मन के विकारों के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है । इसका निरंतर अभ्यास करने से मन की चंचलता कम होती हैं ।
श्रीमद् भगवतगीता में भी नारदजी ने वेदव्यास को अपना अनुभव बताते हुए कहा की जब उनका चित्त विकारों से मुक्त होकर निर्मल हुआ और उन्होंने साँस का सहारा लेकर अंतर में प्रवेश किया तभी उन्हें अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति हुई । इस प्रकार इन चारो ग्रंथो में ‘आनापान’ को ही अंतिम लक्ष्य प्राप्ति की प्रमुख भूमिका बताया ।
कैसे है विपश्यना ऐप्लाईड भगवतगीता ?
जब तक मनुष्य मात्र शरीर धारण किये है तब तक सुख-दुःख हानि-लाभ, जय-पराजय, मान-अपमान आदि द्वन्द तो पूर्व संस्कार वश प्रकृति के नियमानुसार आते ही रहेंगे, पर यदि मनुष्य उसमे आसक्ति न करे, उन्हें अनित्य, परिवर्तनशील जानकार द्रष्टाभाव से देखे और कोई प्रतिक्रिया न करे, तो इन राग-द्वेष रुपी द्वंद से छुटकारा हो सकता है । मनुष्य तब विकार विहीन जीवन जीता है, जिसे निर्वाण प्राप्ति, परम शांति व् ब्रम्ह आदि से सम्बोधित किया । इस प्रकार वह प्रत्येक स्थिति में समता में स्थिर रहता है, अर्थात ‘स्थितप्रज्ञ’ होता है । इस स्थिति तक पहुंचने की क्रियात्मक विधि ‘विपश्यना’ सिखाती है ! यह विध्या अभ्यास द्वारा सिखाती है कि संस्कार कहा बनते है और उन्हें बढ़ने से कैसे रोका जा सकता है और चित्त को समता में रखने कि क्या विधि है ? बुद्ध ने विषयों की आसक्ति को दुःख का कारण नहीं माना । बल्कि उससे जो संवेदना प्रकट हुई उसके प्रति आसक्ति से ही दुःख प्रकट होता है । यदि इन संवेदनाओ के प्रति आसक्ति समाप्त हो जाये तो दुःख भी दूर हो जाता है । विपश्यना विधि इन्हीं संवेदनाओ को ही अनुभव करना सिखाती है । यही विशेष खोज थी भगवान बुद्ध की ।
बुद्ध ने कहा – मैं केवल धर्म सिखाता हूँ । निर्मल चित्त का आचरण ही धर्म है । चित्त का विकारों से मुक्त होना ही धर्म है अर्थात चित्त का निर्मल होना ही धर्म है । निर्मल रहना धर्म का नैसर्गिक स्वभाव है । पर यह कैसे हो । इसी के लिये बुद्ध ने विपश्यना विधा की खोज की, जिसके द्वारा क्रियात्मक रूप से सिखाया की चित्त निर्मल कैसे हो । राग-द्वेष-मोह रुपी विकार (अन्य विकार इन्ही तीनो के अंतर्गत आते है ) जो चित्त में भरे है, इन्हें विपश्यना की क्रियात्मक विधि द्वारा दूर करना सिखाया । चित्त के विकार जब दूर हो जाते है तो चित्त निर्मल हो जाता है और चंचल चित्त अपने आधीन हो जाता है अर्थात हम इसके स्वामी हो जाते है और तब अंतर्मन में शांति आती है । यही जन्म-मरण के भय से मुक्ति व निर्वाण का सुख है । किसी वस्तु की तृष्णा ही राग है और उसके नष्ट होने का भय ही द्वेष है तथा इसकी अनित्यता की अनुभूति ना होना ही मोह (अज्ञान) है ! इनको दूर करने की क्रिया ही विपश्यना कहलाती है !
श्रीमद् भगवतगीता में भी कहा – ” जो राग-द्वेष से ग्रस्त है, उन्हें भगवत कृपा (शांति) कभी प्राप्त नहीं हो सकती ” यह बात तो सिद्धांत रूप में कही गयी पर यह सब हो कैसे इसके लिए भगवान बुद्ध ने उपरोक्त अवस्था तक पहुंचने का अष्टांगिक मार्ग (शील, समाधी, प्रज्ञा की क्रियात्मक विधि ) तथा इस विपश्यना विधा द्वारा “मैं ” की आसक्ति छोड़ने की क्रिया / विधि सिखाई । इसके निरंतर अभ्यास से साधक मन को वश में कर भोक्ता भाव से द्रष्टा भाव में पुष्ट होता जाता । सत्य को अपने अनुभव द्वारा सीखता है परिणाम स्वरूप समता भाव उसके आचरण में स्वयं ही आने लगता है । इस प्रयोगात्मक विधि का लक्ष्य यह है की चित्त नितांत निर्मल होकर प्रत्येक स्थिति में समता में स्थिर रह सके, इसलिए हम श्रीमद् भागवतगीता का पाठ करके ही न रह जाए। नहीं तो यह भी एक कर्मकांड बनकर रह जायेगा । हमें इसे पढ़कर उसको धारण करने की कोई प्रयोगात्मक विधि सीखकर इसे अपनी अनुभूति पर उतारना होगा, तभी सही अर्थ में यह गूढ़ ग्रन्थ समझ में आएगा । आओ विपश्यना साधना की (क्रियात्मक विधि ) द्वारा सभी धार्मिक ग्रन्थों के सार को अपने जीवन में धारण करे, ताकि धर्म का आचरण ही हमारा जीवन बन जाए और जीवन आनंद से भर जाये । यही अंतिम लक्ष्य है ।
विडम्बना हैं कि आज शिक्षण संस्थाओं में केवल जीविका की शिक्षा ही दी जा रही हैं, वहाँ जीवन शिक्षा भी दी जानी चाहिये जिससे एक सफल एवं सार्थक जीवन जिया जा सके ।
अंत में बुद्ध ने धम्मपद 183 में थोड़े शब्दों में और सरल भाषा में कहा कि – 1) सभी कुशल कर्मो की सम्पदा संचित करो, 2) अकुशल कर्मो का त्याग करो और 3) चित्त को नितांत निर्मल रखो । अर्थात निर्मल चित्त का आचरण ही धर्म है जो की विश्व के सभी संप्रदायों के धर्म ग्रन्थों का सार हैं । अत: इससे यह प्रमाणित होता है कि विपश्यना ध्यान साधना ऐप्लाईड भागवतगीता ही हैं जो कि पूर्णत: वैज्ञानिक, सहज, सरल, सम्प्रदाय-विहीन, अपनी अनुभूतियों से अपने दुर्गुणों को मिटाने वाली, सुखी जीवन जीने की अद्वितीय कला है ।
अन्य जानकारियाँ जैसे – विपश्यना क्या हैं ? कैसे सिखाई जाती हैं ? पूरे भारत और विश्व में कहाँ-कहाँ इसके केन्द्र हैं ? इसके नियम व समय सारिणी क्या हैं ? आगामी शिविरों की जानकारी व इन निःशुल्क मौन शिविरों में शामिल होने के लिये आवेदन व अन्य जानकारी के लिये :
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साभार : Dinesh Kumar Malpani