🌷चित्त की चेतना के चार खंड 🌷

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  1. पहला खंड – विज्ञान: जानने का काम करता है.
  2. दूसरा खंड – संज्ञा: पहचानने का काम करता है. मूल्याङ्कन भी साथ में करता है.
  3. तीसरा खंड – वेदना: संवेदनशील होने का काम करता है.
  4. चौथा खंड – संस्कार: प्रतिक्रया करने का काम करता है.

(किसि एक परंपरा में इसी को मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार कहा गया केवल शब्दों का अंतर है).

१. छहों इन्द्रियों (आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा और मन) पर ये चार खंड काम करते है.. आँख पर कोई रूप आया, नाक पर कोई गंध आयी, कान पर कोई शब्द आया, जीभ पर कोई रस आया, त्वचा पर कोई श्पर्शव्य पदार्थ आया, मन पर कोई चिंतन आया तो सबसे पहले उस खंड का विज्ञान जागता है (कोई-न-कोई संवेदना होती है). मानस का पहला खंड सक्रिय होता है. उदहारण के लिए: कान पर कोई शब्द आया, मानस का पहला खंड “विज्ञान”: सक्रीय होता है, कान पर शब्द का विज्ञान जागा, पूरा शरीर एक प्रकार की (न्यूट्रल) तरंगों से तरंगित होने लगता है.

२. इतने में मानस का दूसरा खंड “संज्ञा”: पहचानने का काम करना शुरू करता – शब्द आया है ये खंड पहचानता ही नहीं मूल्यांकन भी कर देता है “गाली” का शब्द है या “प्रशंसा” का शब्द है बस..

३. इतने में मानस का तीसरा खंड सक्रीय होता है वेदना (संवेदना): जैसे ही शब्द का मूल्यांकन हुआ कि “गाली” का शब्द है, वो जो पूरे शरीर में जो न्यूट्रल तरंगे/संवेदना थीं वो “दुखद” संवेदनाओं में परिवर्तित हो जाएगी, और यदि शब्द का मूल्यांकन हुआ कि “प्रशंसा” का शब्द है तो वो जो पूरे शरीर में जो न्यूट्रल तरंगे/संवेदना थीं वो “सुखद” संवेदनाओं में परिवर्तित हो जाएगी. यहाँ तक तो सब ठीक है लेकिन …

४. ये जो मानस का चौथा खण्ड है “संस्कार”: ये प्रतिक्रया करने का काम करता है. क्या प्रतिक्रिया करता है? और किसके प्रति? ये प्रतिक्रया करता है इन “सुखद” और “दुखद” संवेदनाओं के प्रति.

“दुखद” संवेदनाओं के प्रति “नहीं चाहिए – नहीं चाहिए” कि प्रतिक्रिया करता है, इन दुखद संवेदनाओं को दूर करने की चेष्टा करता है, जिसे हम “द्वेष” कहते है.

राग-द्वेष शरीर की संवेदनाओं के प्रति होता है (न की शरीर के बाहरी विषयों के प्रति).

जैसे ही इन संवेदनाओं के प्रति राग अथवा द्वेष की प्रतिक्रिया होती है हमारे संस्कारों/विकारों का संवर्धन (मल्टिप्लिकेशन) होता है. और यदि इन “सुखद” अथवा “दुखद” संवेदनाओं के प्रति साक्षी भाव, समता भाव, तटस्थ भाव रखा जाय या इन “सुखद” अथवा “दुखद” संवेदनाओं को साक्षी भाव, समता भाव, तटस्थ भाव से देखा (अनुभव) जाय तो हमारे संस्कारों/विकारों की उदीर्णा (क्षय) होती है.